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इतवार बार-बार ‘वार’ करता है

शहर-दर-शहर
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कभी-कभी सुबह भ्रम भी पैदा करती है कि क्या सचमुच सुबह हो गई है? क्या सूरज के उग जाने से ही नए दिन की शुरुआत हो जाती है? ऐसे सवाल मन के आकाश के लिए बादल की तरह है, जो बरसने के लिए हर वक्त बेवक्त उतारु रहती है। इतवार की सुबह भी मेरे लिए ऐसी ही रही।

उधर, दिल्ली के रामलीला मैदान में परिवर्तन की बयार चल पड़ी है और यहां कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम के बाहर लोगों का जमावड़ा लगा है। अंग्रेजी के शब्द ‘कंफर्ट’ में ‘जोन’ जोड़ देने से जो आभास या अनुभव हम करते हैं, दरअसल उसे तोड़ने कि हिम्मत हर किसी को नहीं होती है। अजमेरी गेट और तुर्कमान गेट के बीच शायद 10 एकड़ में फैले रामलीला मैदान में उसी कंफर्ट जोन को तोड़ने के लिए लोग इकट्ठा हो रहे हैं। चैनल ‘काल युग’ में दूरियां मायने नहीं रखती है, सब लाइव हो जाता है।

तथ्यों को इकट्टा कर रखने वाले सहकर्मी दोस्तों का कहना है कि चीन के साथ 1962 के युद्ध में मिली हार के बाद 26 जनवरी, 1963 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में सुर साम्राज्ञी लता मंगेश्कर ने भी इसी मैदान में एक ऐतिहासिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया था। उन्होंने दिल को छू लेने वाले कवि प्रदीप द्वारा लिखित देशभक्ति गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी’ को अपनी आवाज दी थी।

दूसरी ओर पता चला कि वर्ष 1975 में जयप्रकाश नारायण ने इसी मैदान से इंदिरा गांधी की नेतृत्व वाली सरकार को उखाड़ फेंकने का आह्वन किया था। यहीं रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध पंक्तिया, ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ को लोगों ने एक नारे के तौर पर बुलंद किया था। इस विशाल रैली से डरी सहमी इंदिरा गांधी की सरकार ने 25-26 जून, वर्ष 1975 की रात को आपातकाल की घोषणा कर दी थी।

यह वक्त का पहिया होता है जो अक्सर भ्रम के बादल को भी हमारे मानस पर लहरा देता है और हम उसी कंफर्ट जोन में बंधे रह जाते हैं, जिसकी मैंने शुरुआत में चर्चा की है। ‘निकलना खुद से..’बड़ी बात होती है लेकिन इसे ‘करना’ और भी बड़ी बात। बाबा नागार्जुन की कविता की पंक्ति है- “ओम अंगीकरण, शुद्धीकरण, राष्ट्रीकरण, ओम मुष्टीकरण, तुष्टिकरण, पुष्टीकरण…. “दरअसल देश की आवो-हवा, जिसे हम बरबरस स्वीकार कर लेते हैं, इसी “तुष्टीकरण” की देन है। कोई जगाने हमें आ जाता है तो हम जग जाते हैं अन्यथा सोने में बड़ा मजा आता है।

इस इतवारी सुबह इसी तरह के कई ख्याल वार कर रहे हैं। टीवी देखने क लिए पहले स्वीच और फिर रिमोट के बटन को दबाता हूं तो समाचार चैनलों के द्वार खुल जाते हैं। हर जगह रामलीला लाइव। चैनलों के जरिए ‘देश काल’ की रचना हो रही है। उधर, ब्रेक में एयरटेल कंपनी का एक विज्ञापन दिखाया जा रहा है। जिसके कुछ बोल हैं- “ चाय के लिए जैसे टोस्ट होता है, वैसे हर एक फ्रैंड जरुरी होता है। कोई रात को तीन बजे जान बचाए..कोई नेचर से होस्ट तो कोई गेस्ट होता पर एक फ्रैंड जरुरी होता है…।”

इसे लोग खूब पसंद कर रहे हैं लेकिन जब इसमें मुझे ”कोई रात को तीन बजे जान बचाए…” सुनने को मिलता है तो मन खट्टा हो जाता है क्योंकि मैं तीन बजे को सुबह मानता हूं। ओह, फिर एक भ्रम। इसलिए मुझे लिखना पड़ रहा है कि “कभी-कभी सुबह भ्रम भी पैदा करती है कि क्या सचमुच सुबह हो गई है?”

गिरीन्द्र
09559789703

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