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कुछ ख्वाबों का खून हुआ है…

शहर-दर-शहर
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रात और दिन, मिनट और घंटा। मैं ख्वाबों के बीच दिन और रात को देख रहा था। शहर का चौराहा दिन ढलते ही बनावटी उजाले की गोद में जा चुका था। गांव की शाम शहर की शाम के नक्श-ए-कदम पर आगे बढ़ रही थी। लेकिन शायद अभी उसे शहर होने में वक्त लगने की उम्मीद नजर आ रही थी।

शहर में सुबह गुलाब के फूल गुलाबी के साथ पीले और कत्थई भी नजर आ रहे थे। फ्लैट का सबसे उपेक्षित इलाका, जी हां वही बरामदा, जिसे आप बालकनी कहते हैं, जहां हर सुबह अखबार वाला मर चुके खबरों को काले रबर से बांधकर फेंक जाता है, वहीं गमले में ही एक बागवानी बन गई थी। फ्लैट का मालिक हर सुबह अखबार उठाने से पहले गुलाब के पौधे को देखकर कमरे में बंद हो जाता था।

गांव में सुबह-सुबह गुलाब लाल ही दिख रहे थे लेकिन उस पर गर्मी में भी ओस के मद्धिम बूंद नजर आ रहे थे। गुलाब के डंटल मानो छलांगे लगाने को बेताब दिख रहे थे। बागवानी अभी भी वहां जमीन की मिट्टी में ही सजी दिख रही थी, गमले अबतक नहीं आए थे। गुलाब के साथ कुछ बन-बेली के फूल भी उग आए थे। नंगे पांव हरे-हरे दूब तलवे में गुदगुदी लगा रहे थे। घर का मालिक उसे देखकर मुस्कुरा रहा था। बागवानी फुलवारी बन गया था।

सुबह-सुबह कुछ पक्षी उस गुलाब को देखकर चहचहा रहे थे। शहर में सहर होने का मतलब आपाधापी था, हर किसी को मंजिल फतह करने की जल्दबाजी थी, वहीं गांव में मंजिल का मतलब कुछ काम था, जिसे जल्दबाजी में नहीं आराम से शाम होने तक निपटाना था।

कि तभी, देर रात एकाएक बिजली कौंधती-चमकती है, साथ में तेज हवा भी, गांव में गुलाब के डंटल को बेली के पत्ते से मिला देती है। दो यार जैसे आपस में मिलकर खुश होते हैं, वहीं अहसास उन्हें भी होता है। बेली और गुलाब के फूल मुस्कुरा पड़ते हैं, एक आशा के साथ कि उनके लिए कुछ बूंद भी आसमां टपकाएगा।

उधर, शहर के फ्लैट के उसी बालकनी से कुछ गिरने की आवाज आती है, गुलाब का गमला दीवार पर रखे स्टैंड से नीचे गिर आता है, पीले रंग का गुलाब अब अपने जड़ से अलग हो चुका है, उसे पता है कि एक आंधी आई थी। जमीन पर न रहने का उसे अहसास था। उसे पता था कि ऊंचाई से अक्सर गिरने का भी डर रहता है। ….कल रात सुना है कुछ ख्वाबों का खून हुआ है….!

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