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पोंटिंग के बहाने-यूं होता तो क्या होता…

शहर-दर-शहर
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फेसबुक के दोस्तों में एक और चैनल आईबीएन 7 से जुड़े पंकज श्रीवास्तव के स्टेटस पर जरा गौर करें- “ भारत की जीत पर खुश होना लाजिमी है। लेकिन पागल होने का क्या मतलब ? ये अखबारों और चैनलों में कुचल दो, मिटा दो, जला दो की भाषा क्या संकेत करती है? ये कैसा खेल है जो खेलभावना की हत्या के साथ शुरू होता है ?….क्या बिल गेट्स की इस बात को दरकिनार कर देना चाहिए कि भारत में बड़ी तादाद में लोग टीबी से मर रहे हैं, लेकिन यहां क्रिकेट का बुखार चढ़ा है।“

मैं खुद क्रिकेट एडिक्ट नहीं हूं। मुझे इस खेल से अधिक गीतों से लगाव है। लेकिन इस खेल को लेकर समाचार चैनलों की भाषा से मुझे सख्त नफरत है। चैनलों में हेडिंग हिंसक हो जाते हैं, तब मन विचलित हो जाता है और रिमोट के बटन पर दर्शक अत्याचार करने लगता है। इस पोस्ट को लिखते वक्त मन 360 डिग्री के कोण पर नाच रहा है, वह स्थिर नहीं हो पा रहा है। अजीब लगता है कि पैसे के खेल का जश्न, भूखे पेट सोने वाला रामू भी मना रहा है। मेरा रामू भूखा है फिर भी धोनी के धुरंधर (चैनल/अखबारी शब्द) पर फिदा है। वह इनके लिए मकबूल फिदा बन जाना चाहता है।
खैर, मैं विषयांतर होता जा रहा हूं। मैं रिकी पोंटिंग की बात करना चाहता हूं। क्रिकेट की दुनिया का सफलतम कप्तान, जिसके लिए जीत एक भूख है, जीत एक जश्न है, एक ऐसी भूख, जिसे मिटाने के लिए वह और उसकी सेना सारे दांव-पेंच लगा सकती है। लेकिन गुरुवार की रात उसके अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को नीली जर्सी वाली सेना ने रोक लिया और फिर पूरे मुल्क में विजयी सेना और उसके सेनापति की जय-जयकार होने लगी।

फेसबुक और तमाम सोशल नेटवर्किग साइट्स पर गुरुवार के खेल पर टिप्पणियों की बारिश हो रही थी। फेसबुक पर सभी के वॉल मैदान सरीके नजर आ रहे थे। फेसबुक पर मेरे दोस्त और जागरण प्रकाशन के टेबलॉयड आईनेक्स्ट से जुड़े प्रभात गोपाल झा जी ने लिखा – PONTING KA CHEHRA KAISA LAG RAHA THA…(पोंटिंग का चेहरा कैसा लग रहा था )। उनकी इस टिपप्णी पर अलग-अलग टेस्ट की ढेरों प्रतिक्रियाएं आईं। एक ने लिखा-उजड़ा चमन।

मैंने भी हिम्मत कर टिप्पणी छोड़ी- “एक यौद्धा की तरह, जिसने जीवन में केवल जीत को अपना लक्ष्य बनाया हो, याद कीजिए, गेंद को रोकने के चक्कर में उसकी ऊंगली में चोटच लग गई थी, गंभीर चोट , तो भी उसने हार नहीं मानी, मैदान में डटा रहा। मैं क्रिकेट एडिक्ट नहीं हूं लेकिन रिकी पोंटिंग के जज्बे से जरूर सीख लेता हूं, अंत तक आप जीत को लेकर आशान्वित बनें रहे हैं। यह जज्बा लाइफ के हर फिल्ड में आजमा सकते हैं।

दरअसल प्रभात जी के स्टेटस पर लिखते हुए मेरे दिमाग में विजयी सेनापति का मनो-स्वभाव छंलागें लगा रहा था। बात यह है कि मुझे पोंटिंग के जुनून से इश्क है। मैंने पोंटिंग के जुनून की क्लिपिंग गुरुवार को भी मैदान में देखी। वह और उनकी टीम कंगारुओं की तरह कुलाचे मार रही थी। गेंद सीधे उनके हाथों में आ रहे थे और जो नहीं आना चाह रहे थे उसे वे जबरन अपने हाथों में कैद कर रहे थे।

भले ही नीली जर्सी वालों ने मैच को अपने नाम कर लिया लेकिन पोंटिग की सेना भी हर पल जीत के करीब आने के लिए जी-जान से मेहनत कर रही थी। पोंटिंग के जज्बे को मैं क्रिकेट से ऊपर मानता हूं। मेरे लिए वे हार-जीत से आगे हैं। भले ही आप उनकी आलोचना करें लेकिन मैं तो गालिब के बहाने यही कहूंगा –
“ना था कुछ तो खुदा था, कुछ ना होता तो खुदा होता। डूबोया मुझको होने ने, ना होता मैं तो क्या … ना होता”

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