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वो अक्सर मिलती हैं, कभी तारों की छांव में, कभी बादलों की छांव में…

शहर-दर-शहर
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कानपुर में नोएडा की तरह अखबार साढ़े छह बजे हॉकर भाई नहीं फेंकते हैं, यहां थोड़ा इंतजार करना पड़ता है, सुबह सात बजे तक। सुबह पन्नों को पलटना आदत सी बन गई साथ ही पेशेवर मजबूरी भी। रविवार को मैं अन्य दिनों की तुलना में अखबारों को ज्यादा वक्त देता हूं। आज अधिकांश अखबारों के पहले पन्नों पे ‘मुबारक’ बाद की चर्चा थी, एडिट पन्ने भी इसी से मिलते-जुलते थे। लेकिन यहां मैं जिस अखबार में काम करता हूं उसने अपने एडिट पन्ने पे इमरोज को छापा है। वैसे भी इमरोज मेरे दिल के बेहद करीब हैं। प्रतिभा कटियार ने उनसे जो बातचीत की, उसे ही यहां पेश किया गया। इसे पढ़ते ही इमरोज से एक मुलाकात की याद ताजा हो गई।

दिल्ली में एक बार उनसे मुलाकात हुई थी, यह वन टू वन नहीं थी, बल्कि अपने कुछ यारों के साथ इमरोज से रू-ब-रू होने का मौका मिला था। उस वक्त उन्होंने हमें ढेर सारी बातें बतायी, एकदम कहानी की तरह। हम उस वक्त कॉलेज में मस्ती किया करते थे। इमरोज ने बताया कि एक बार ‘अमृता ने उनसे पूछा कि तुमने कभी Women With Mind बनायीं है ? Women With Face तो सब बनाते हैं’।  वे अमृता के कहने का मतलब समझ रहे थे, दरअसल बहुत ही कम लोग होते हैं जो जिस्म से आगे बढ़ पाते हों , कोई भी पेंटर जब भी ब्रश से औरत को उकेरता है, तो उसके जेहन में सिर्फ औरत का शरीर होता है।  उन्होंने हम सभी को बताया कि जब तक पुरुष स्त्री का आदर नहीं करता तब तक वो इंसान नहीं बन सकता है ,और भी सच है कि निरादर सह रही औरतें आदर पैदा नहीं कर सकती। उन्होंने बताया कि उनके  और अमृता के के बीच में शब्दों का नाता बहुत कम था, वे अक्सर चुप्पियाँ बांटा करते थे। जब धर्म पर  बात चली तो उन्होंने कहा कि हमारे लिए धर्म का कोई मलतब नहीं था , वह (अमृता) जन्म से ही धार्मिक संकीर्णता के विरुद्ध खड़ी थी ,मैं भी उसके जैसा हूँ।

अभी पढिए इमरोज की यह कविता-

उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं
वो अक्सर मिलती है
कभी तारों की छांव में
कभी बादलों की छांव में
कभी किरणों की रोशनी में
कभी ख्यालों के उजालों में

हम पहले की तरह मिलकर
कुछ देर चलते रहते हैं
फिर बैठकर एक-दूजे को
देख-देख , चुपचाप कुछ कहते रहते है
और कुछ सुनते रहते हैं

वह मुझे अपनी नयी अनलिखी
कविता सुनाती है
मैं भी उसको अपनी अनलिखी
नज़्म सुनाता हूँ…….

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