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शहर, लिफ्ट और किशोर कुमार

शहर-दर-शहर
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गीत की दुनिया अजीब होती है। अक्सर वैसी दुनिया, जिसमें शब्द बसते हैं, वो लोगों को अपनी ओर खींचने में कामयाब होती हैं। यदि ऐसा न होता तो शायद मुन्नी बदनाम हुई और शीला की जवानी इस कदर लोगों की जुबान पर न चढ़ते। शहर में तो गीत आपसे और भी करीब आ जाता है। एकाकी होते हुए भी गीत भीड़ का अहसास कराती है।

मुझे लिफ्ट और ट्रेन में धीमे आवाज में बजते गीत-संगीत सबसे अधिक अपनी खींचती है। यहां कानपुर में ऑफिस से ऊपर-नीचे करने का एक जरिया सीढ़ी के अलावा लिफ्ट भी है। यह लिफ्ट मुझे 60-70 के दशक का अहसास दिलाती है। किशोर कुमार इस लिफ्ट की आत्मा हैं। जब भी ग्राउंड से 9वीं मंजिल की ओर जाना होता है तो किशोर की आवाज मुझे मन के करीब पहुंचा देती है। ‘गुम है किसी के प्यार में दिल सुबह-शाम, पर तुम्हें लिख नहीं पाऊं मैं उसका नाम….’ ऐसे तमाम शब्द, जिसे किशोर ने आवाज दी है, वो मेरे साथ-साथ नौवीं मंजिल पहुंच जाती है और मैं शब्दों के संग बावरा हो जाता हूं।

अक्सर किशोर की आवाज आपको खुद से दूर भी ले जाती है। एक ऐसी जगह जहां आप शांत-सौम्य होकर मन की बात सुन सके। ट्रैफिक की मारामारी में जब ऑफिस पहुंचता हूं और वो भी सीढियों के बजाए लिफ्ट के सहारे तो मन-तन की सारी थकान चुटकी में मिट जाती है। वो भी जब किशोर की आवाज में यह सुनने को मिलता है- ‘खिलते हैं गुल यहां, खिल के बिखरने को, मिलते हैं दिल यहां मिल के बिछड़ने को….’.

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