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सजनवा बैरी हो गये हमार

शहर-दर-शहर
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‘’अब सोचती हूँ तो लगता है, अब से 33 वर्ष पहले मृत्यु के कगार पर खड़े एक मरीज को मैंने देखा था। उसकी सेवा की थी। तब से लेकर 11 अप्रैल 1977 की साढ़े नौ बजे की रात तक उसे अनवरत सेती रही और अंततः वह चला ही गया। दो कमरों के फ्लैट, दीवार पर लगी उनकी तस्वीरें, उनके दैनिक उपयोग के सामान-पुस्तकें, पत्र, पत्रिकाएँ यही सब तो छोड़कर गए हैं रेणु। लेकिन एक रचनाकार के नाते रेणुजी जो कुछ भी छोड़कर गए हैं, वह अन्याय के विरुद्ध लड़ने की, संघर्षों से जूझते जाने की अदम्य जिजीविषा की अनवरत यात्रा है।‘’
– लतिका रेणु
ये बातें लतिका जी ने रेणु की मौत के बात कही थीं, एक ऐसी औरत जिसने रेणु के साहित्य को गढ़ा, जिसने रेणु के मानस को गढ़ा..13 जनवरी को पंचतत्व में समा गई। यहां कानपुर में उनकी मौत की खबर सुनने के बाद मुझे दो साल की पहले की एक खबर की याद आ गई। 18 दिसंबर 2009 , उस वक्त मैं दिल्ली में एक समाचार एजेंसी इंडो एशियन न्यूज सर्विस (आईएएनएस) में था। आईएएनएस पटना के संवाददाता मनोज पाठक हैं, उन्होंने 18 दिसंबर की सुबह एक अच्छी खबर सुनाई। दरअसल मुझे हिंदी साहित्य में रेणु की रचनाओं से खास लगाव है. एक अपनापा है। मनोज भाई ने बताया कि रेणु का अधूरा ख्वाब पूरा हो गया है, मैंने तुरंत पूछा लतिका जी औराही चली गईं क्या? उन्होंने सकारात्मक उत्तर दिया।

..13 जनवरी को फिर खबर आई लेकिन आंखे नम करने वाली, कि लतिका जी ने अब नहीं रही..। वह 85 वर्ष की थी. औराही में अपने दोस्त अमित से जब बात हुई तो उसने बताया कि लतिका जी लंबे समय से बीमार चल रहीं थी. लतिका जी और रेणु 1954 में परिणय सूत्र में बंधे थे. 1950 में जब ‘मैला आंचल’ के रचनाकार रेणु बीमार पड़े थे, तो उन्हें पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल (पीएमसीएच) में भर्ती करवाया गया था और यहीं दोनों के बीच प्यार पनपा था। तब लतिका पीएमसीएच में नर्स थीं। वैसे तो मौत सत्य है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है लेकिन इस सत्य से हर कोई दुखी होता है। दरअसल हर किसी की मौत असामयिक होती है। लतिका जी को मैं एक ऐसी औरत के रूप में जानता हूं जिसने हिंदी साहित्य की अमर कृतियों के लेखन और प्रकाशन में बड़ी भूमिका निभायी थीं। खुशी इस बात की है कि उन्होंने औराही में अंतिम सांसे लीं। दरअसल रेणु जबतक रहे, बस यही कहते थे कि लतिका जी औराही में रहें लेकिन कुछ वजहों से ऐसा हो नहीं पा रहा था।2009 के आखिर में लतिका जी औराही गईं तो वहीं की हो गई। अभी तीसरी कसम का यह गीत मन में बज रहा है-

सजनवा बैरी हो गये हमार
चिठिया हो तो हर कोई बाँचे
भाग ना बाँचे कोय
करमवा बैरी हो गये हमार……
(पुनश्च- १३ जनवरी को अपने ब्लॉग अनुभव पर इसे लिखा था )

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