मुझे शहर ने शहरी बनाया, वर्ना कुछ और होता। शहर-दर-शहर की भूख जगी रहती है, फिर ख्याल गांव का आता है, वहां जिंदगी के रूप खोजने में जुट जाने की ख्वाहिश जाग उठती है। खैर, फिलहाल शहर में हूं, शहर की आबो-हवा में भारत-एक-खोज जैसी तो नहीं लेकिन बाजार, मोहल्ला,गलियों को तो जरूर समझ रहा हूं। कुल सात महीने हुए कानपुर में। पूर्णिया से निकला तो बगल में किशनगंज फिर मुंगेर फिर दिल्ली और अब कानपुर। दिल्ली में जो इलाका सबसे अधिक भा गया वह है पुरानी दिल्ली। शाम ढलते ही वहां के बाजारों की रौनक दिल में कम समा गई पता ही नहीं चला। रेखा भारद्वाज जब गाती हैं- जुबां पे लागा, नमक इश्क का तो यकीन होता है कि शहर की शाम सचमुच नमकीन होती है, वह मिठास भरे रस नहीं टपकाती है। यही हाल अबके बरस कानपुर में भी है। शाम ढलते ही कानपुर की रौनक मुझे शहरों के एक अलग मिजाज से मेल करवाती है। माल रोड हो या फिर कानपुर-लखनऊ रोड, रंगीनियत सब पे हावी हो जाती है। मैं निकल पड़ता हूं सहर होने तक। मन कविता करने का होता है, खूब लिखूं शहरी शाम का होके, कह दूं कि कानपुर तू एक शाम है और मैं सहर होने तक तुझमें लिपटा रहूंगा….। फिर याद यार दोस्तों का आता है, जो कहते हैं –महाराज ये कानपुर है, क्राइम कैपिटल ऑफ यूपी। लेकिन मेरा मन बावरा हो चुका है, मैं शहर की तह तक जाने की सोच ली है। जाजमऊ के गंगा पुल की ओर मुड़ता हूं, फिर कानपुर से सटे उन्नाव जिले के शुक्लागंज की तरफ जाता हूं। बिहार में जिस तरह गंगा और कोसी के कछाड़ पर बसे इलाकों में अपराध की खेती हुआ करती थी ठीक वैसे ही हालात इन इलाकों के बारे में भी सुने थे लेकिन ये क्या यहां तो हरी सब्जियों की बाजार लगी हुई है, लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है शाम में, सब्जी के लिए। यह शहर मुझे रेलगाडियों के लिए खास पसंद है। यहां पग-पग पर रेलवे क्रासिंग हैं, शुरुआत में अजीब सा लगता था लेकिन अब आदी हो चुका हूं। श्यामनगर क्रासिंग हो या फिर सीओडी, सब यार लगते हैं। शाम ढलते ही क्रासिंग पर ट्रैफिक जाम लगने को लेकर सभी खूब गाली देते हैं लेकिन मुझे यहां भी कानपुर और यहां की बोली से इश्क हो जाता है। गुलजार के इश्किया की तरह मैं भी बोली-बानी-गाली में खो जाता हूं, शब्द चुराने लगता हूं, डायलॉग खोजने लगता हूं। खोज रहा हूं, शहरी शाम का होकर इश्क कर रहा हूं….।
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